
पश्चिमी एशिया की तपती रेत पर दो राष्ट्रों की गूंज सुनाई देती है — एक ओर ईरान, जो फारस की गौरवशाली परंपराओं का उत्तराधिकारी है, और दूसरी ओर इज़राइल, जो यहूदी सभ्यता के पुनर्जागरण का प्रतीक । इन दोनों देशों के बीच दशकों से सुलगती चिंगारी अब धधकती आग बन चुकी है। यह केवल दो देशों की जंग नहीं है, यह टकराव है आदर्शों, धार्मिक विश्वासों, रणनीतिक हितों और वैश्विक शक्ति संतुलन का।
इतिहास की तहों में छिपा वैर
ईरान और इज़राइल के रिश्तों की कहानी 1950 के दशक में दोस्ती से शुरू होती है, जब ईरान में शाह की सत्ता थी। उस दौर में दोनों देश अमेरिका के सहयोगी थे और एक-दूसरे के साथ आर्थिक और सैन्य सहयोग करते थे। लेकिन 1979 की ईरानी इस्लामी क्रांति ने इन रिश्तों को पूरी तरह बदल दिया। अयातुल्ला खोमैनी के नेतृत्व में बनी नई सरकार ने इज़राइल को “शैतान का राज्य” करार दिया और फिलिस्तीन की मुक्ति को अपना धर्मिक कर्तव्य घोषित किया।
इस क्रांति के बाद से ईरान ने खुद को मध्य-पूर्व में इस्लामी क्रांति का झंडाबरदार घोषित कर दिया और इज़राइल को अपना प्रमुख दुश्मन बना लिया।
वर्तमान संघर्ष: तलवारें अब बोल रही हैं
वर्ष 2024-2025 की शुरुआत से ही पश्चिम एशिया में तनाव चरम पर है। हिज़्बुल्लाह, हमास, यमन के हूथी विद्रोही और सीरिया में ईरानी सैन्य ठिकाने, इज़राइल पर लगातार हमले कर रहे हैं। इज़राइल की ओर से जवाब में की गई एयरस्ट्राइक्स में ईरान के कई वरिष्ठ कमांडर मारे गए, जिससे तेहरान की सरकार आगबबूला हो गई।
अप्रैल 2024 में जब इज़राइल ने दमिश्क स्थित ईरानी वाणिज्य दूतावास पर हमला किया, तो इसे सीधे ईरान की संप्रभुता पर हमला माना गया। जवाब में ईरान ने पहली बार इज़राइल की जमीन पर सीधे मिसाइल और ड्रोन हमले किए। यह एक ऐतिहासिक मोड़ था — अब युद्ध छाया युद्ध (proxy war) नहीं, बल्कि सीधी मुठभेड़ में बदल चुका है।
युद्ध की पृष्ठभूमि में छिपे उद्देश्य
यह संघर्ष केवल धर्म या बदले की भावना का नहीं है, बल्कि इसके पीछे कई गहरे रणनीतिक और राजनीतिक उद्देश्य हैं:
- ईरान चाहता है कि वह मध्य-पूर्व में इस्लामी प्रभुत्व और राजनीतिक नेतृत्व की भूमिका निभाए। उसके लिए इज़राइल एक बाधा है।
- इज़राइल को लगता है कि अगर ईरान परमाणु हथियार विकसित कर लेता है, तो वह उसके अस्तित्व के लिए खतरा बन जाएगा।
- अमेरिका और पश्चिमी देश जहां इज़राइल के समर्थन में हैं, वहीं रूस और चीन ने अप्रत्यक्ष रूप से ईरान को सहयोग देना शुरू कर दिया है। यह टकराव अब वैश्विक शक्ति संतुलन का हिस्सा बन गया है।
जनता की पीड़ा: युद्ध की असली कीमत
जब भी युद्ध होता है, सबसे अधिक पीड़ा आम नागरिकों को होती है। गाज़ा में हजारों लोग बेघर हो गए हैं, बेरूत में मिसाइलें गिरीं, और तेल अवीव में लगातार सायरन बजते रहते हैं। ईरान के शहरों में भी डर का माहौल है। एक माँ अपने बच्चे को खोती है, एक बच्चा अपने पिता को युद्ध में मरता देखता है।
युद्ध की खबरें भले ही टीवी पर 30 सेकंड में बदल जाती हैं, लेकिन जिनकी ज़िंदगी उजड़ जाती है, उनके लिए समय वहीं थम जाता है।
भविष्य की दिशा: क्या तीसरे विश्व युद्ध की आहट है?
विश्व विशेषज्ञों का मानना है कि यदि यह युद्ध और गहराया, तो यह पूरे मध्य-पूर्व को लपटों में झोंक सकता है। ईरान के समर्थन में अगर लेबनान, सीरिया, यमन जैसे देश उतरते हैं और इज़राइल को अमेरिका, फ्रांस व ब्रिटेन का समर्थन मिलता है, तो यह जंग एक क्षेत्रीय संघर्ष से वैश्विक युद्ध में बदल सकती है।
सवाल यह भी उठता है कि क्या यह स्थिति तीसरे विश्व युद्ध की आहट है? क्योंकि जैसे-जैसे देश अपने-अपने गुटों में बंट रहे हैं, और हथियारों के सौदे बढ़ रहे हैं, शांति की संभावना धुंधली होती जा रही है।
राजनीतिक बयानबाज़ी या समाधान की तलाश?
दोनों देशों की सरकारें एक-दूसरे को खत्म करने की बात करती हैं, लेकिन वैश्विक मंच पर शांति की अपील भी होती है। संयुक्त राष्ट्र, अरब लीग और अन्य संस्थाएं अब तक केवल बयान और निंदा तक सीमित रही हैं। यह स्पष्ट है कि यदि बड़े देशों ने हस्तक्षेप नहीं किया, तो यह आग बुझने के बजाय और फैलेगी।